मंगलवार, 15 जून 2010

सल्तनत-ए-दहसत ढहाये

सूखे-लब, फिर से तर कर, भूला किस्सा फिर, बया कर रहा हू.
थके कदमो को, सम्हाल फिर से, मन्ज़िल को सर, कर रहा हू.

अधूरा सफ़र, करीब आके मन्ज़िल, जमाने के ताने, हज़म कर रहा हू.
बडी याद आई, तुम्हारी सफ़र मे, सजदे मै तेरे, सनम कर रहा हू.

कहा एक दिन था, तुमने ए मुझ से, अजी! जाके मुह, अपना धो आइए.
ए चम-चम नही, हर किसी के लिए, खैरियत हो तो, अपने घर जाइए.

बडी धार थी, तल्खे-तलवार मे, जुबा यू कि, कोइ हो खन्जर-कटारी,
हमी पे दिखायी, ए कातिल जवानी, खैर हो तुम्हारी, आरजू मे गुजारी.

न भूले खताये, न की जो कभी, न फिर मुस्कराए, रूठे जो एक दिन.
अजी थूकिये, सारी तल्खियो को, पलट के न आये, गये जो एक दिन.

चलो आज हम, अहद कर ही डाले, जलाए सभी, फ़रमान-ए-फ़सादी.
आओ मिटादे, गिले-सिकवे सारे, जलाए चिरागा, अमन-ओ-आज़ादी.

मिलकर मनाये, खुसिया सभी हम, कभी तुम बुलाओ, कभी हम बुलाये.
हम-निवाले मे, सिवैया-बतासे, कभी तुम खिलाओ, कभी हम खिलाये.

लानत-मलानत मे, गुजरी बहुत, कभी तुम टरटराये, कभी हम गुरराये.
लगा ले, गले लख्ते-ज़िगर, कभी तुम मुस्काराओ, कभी हम मुस्कराये.

करे आपकी, हम खातिर तव्व्जो, सज्दे मे जब, सर ख्वाजा पे झुकाये.
लुफ़्त उठाए, खीर औ सरबत, जिआरत पे हम, ननकाना सहिब जाये.

चलो गुनगुनाये, नमगे मुहब्बत, ए जन्नत हमारी, जहन्नुम बनी है.
न मह्फ़ूज रहे, हम घरो मे, कि अमन के फ़ाख्ते, चील खा रही है.

कहा गयी, ओ तलवार भवानी, कहा गवा बैठे, ओ चक्र सुदर्सन.
चूहो की हिम्मत, इतनी बढी है, शेरो को डराके, कराते है नरतन.

माना कठिन है, राहे अमन की, पहल कर के अपना, कदम तो बढाये.
बेजा बहा, बहुत खूने आदम, चलो मिलके, सल्तनत-ए-दहसत ढहाये.

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