मंगलवार, 10 अगस्त 2010

यथार्थ जब यु विषाक्त ह़ो जाये

यथार्थ जब यु विषाक्त ह़ो जाये, देह जब उगालदान ह़ो जाए,
इन्साफ रहे कामियो की लंगोटी में, देश तब नाबदान ह़ो जाए.

खुदी को खुद ख़त्म करना, महज क्यों है नारी की लाचारी,
क़त्ल अपना नहीं वाजिब, उडाओ सर, उठाओ खड्ग दो-धारी,

तू पतनी है, तू बहना है, तू माँ है जनमदाता, और तू ही काली,
बहादे रक्त आसुरो का, बुझा ले प्यास, तेरा खप्पर क्यों है खाली.

मंगलवार, 15 जून 2010

सल्तनत-ए-दहसत ढहाये

सूखे-लब, फिर से तर कर, भूला किस्सा फिर, बया कर रहा हू.
थके कदमो को, सम्हाल फिर से, मन्ज़िल को सर, कर रहा हू.

अधूरा सफ़र, करीब आके मन्ज़िल, जमाने के ताने, हज़म कर रहा हू.
बडी याद आई, तुम्हारी सफ़र मे, सजदे मै तेरे, सनम कर रहा हू.

कहा एक दिन था, तुमने ए मुझ से, अजी! जाके मुह, अपना धो आइए.
ए चम-चम नही, हर किसी के लिए, खैरियत हो तो, अपने घर जाइए.

बडी धार थी, तल्खे-तलवार मे, जुबा यू कि, कोइ हो खन्जर-कटारी,
हमी पे दिखायी, ए कातिल जवानी, खैर हो तुम्हारी, आरजू मे गुजारी.

न भूले खताये, न की जो कभी, न फिर मुस्कराए, रूठे जो एक दिन.
अजी थूकिये, सारी तल्खियो को, पलट के न आये, गये जो एक दिन.

चलो आज हम, अहद कर ही डाले, जलाए सभी, फ़रमान-ए-फ़सादी.
आओ मिटादे, गिले-सिकवे सारे, जलाए चिरागा, अमन-ओ-आज़ादी.

मिलकर मनाये, खुसिया सभी हम, कभी तुम बुलाओ, कभी हम बुलाये.
हम-निवाले मे, सिवैया-बतासे, कभी तुम खिलाओ, कभी हम खिलाये.

लानत-मलानत मे, गुजरी बहुत, कभी तुम टरटराये, कभी हम गुरराये.
लगा ले, गले लख्ते-ज़िगर, कभी तुम मुस्काराओ, कभी हम मुस्कराये.

करे आपकी, हम खातिर तव्व्जो, सज्दे मे जब, सर ख्वाजा पे झुकाये.
लुफ़्त उठाए, खीर औ सरबत, जिआरत पे हम, ननकाना सहिब जाये.

चलो गुनगुनाये, नमगे मुहब्बत, ए जन्नत हमारी, जहन्नुम बनी है.
न मह्फ़ूज रहे, हम घरो मे, कि अमन के फ़ाख्ते, चील खा रही है.

कहा गयी, ओ तलवार भवानी, कहा गवा बैठे, ओ चक्र सुदर्सन.
चूहो की हिम्मत, इतनी बढी है, शेरो को डराके, कराते है नरतन.

माना कठिन है, राहे अमन की, पहल कर के अपना, कदम तो बढाये.
बेजा बहा, बहुत खूने आदम, चलो मिलके, सल्तनत-ए-दहसत ढहाये.

गुरुवार, 10 जून 2010

गमगीन वक्त भी, नमकीन हो गया.

मरने की चाह ने, जीना सिखा दिया.
मिलने की राह ने, पीना सिखा दिया.

भट्की हुइ निगाहे, ठहरी है आप पे.
सारे जहा की खुस्बू, सिमटी है आप मे.

खोये हुए खजाने, फ़िर अपने हो गए.
किस्मत से एक बार, हम फ़िर मिल गए,

काली स्याह-राते, चान्दनी बन गई,
मिट के सिकस्त फ़िर, हसरत हो गई.

आते ही आपके, मौसम बदल गये,
सहरा मे फ़िर तेरे, जल्वे म़चल गये.

गमगीन वक्त भी, नमकीन हो गया.
चेहरे पे आपके, आई ए जो हया.

रूक जाइये थोडा, दम लेने तो दे,
एक बार ही सही, जी भर जीने दे.

जाना कि जाना है, चले जाइगा,
जाने के बाद भी, तो हमे पाइगा.

गिरवी रखी है, सासे हमारी आपने,
जिन्दा हू चुका के, हसरते ब्याज मे.

कहने को कह दिया, कोइ नही है हम,
आते ही जिक्र मेरा, क्यो आखे हुई नम.

हसरत मे रहे जिन्दा, हसरत मे मरेगे,
मिलने की आप से, हसरत ही करेगे.

शुक्रवार, 14 मई 2010

'फिर कोइ बच्चा बडा हो रहा है’

देखो ए क्या, माजरा हो रहा है, कोइ राह चलता, खुदा हो रहा है.
ए मौला बता, ए क्या हो रहा है, ए कैसा बुरा, फ़ल्सफ़ा हो रहा है.

फिर कोइ बच्चा, बडा हो रहा है, कान्धो के ऊपर, खडा हो रहा है.
गया था जमात मे, वो इल्म लेने, दोस्तो से वो, बदगुमा हो गया है.

खेलो से वो, अह्ल्दा हो गया है, मेलो मे वो, बद-मजा हो गया है.
जमात मे सबसे, तनहा हो गया है, जेहन जहरीला, कुआ हो गया है.

भूला लोरी, चलाता गोली, खिलौने से पहले, अस्लहा ले रहा है.
लगोटी बद्ले, कफ़न लपेटे, पटाखे से पहले, ऒ बम ले रहा है.

ए मौला मेरे, ए क्या हो रहा है, ए कैसा बुरा, फ़ल्सफ़ा हो रहा है.
बातो से बच्चा, तीसमार हो रहा है, पलते पलते, खुदा हो रहा है.

चच्चू कोइ, उसे बर्गला रहा है, कौमी जूनुन को, हवा कर रहा है.
किताबे सफ़ा पे, किला दे रहा है, उसे तोड्ने की, सलाह दे रहा है.

भैया की खातिर, पेस की सेरवानी, आपा के वास्ते, ली गुडिया रानी.
अब्बू के खातिर, खजाना दिया, अम्मी के चुल्हे को, आटा दिया है.

फिर ७ पुस्तो की, सर-परस्ती का, झूठा ही सही, वायदा दे रहा है.
नसले-रहनुमाइ का, फ़र्मान देकर, अमलदारी के लिये, बम दे रहा है.

मुहब्बत के बदले, कोहराम करना, फिर एक ’ताज’, को बे-दाम करना.
नाहक सभी का, कत्ले-आम करना, शहर को जला, खलिहान करना.

फिर से शहर कोइ, शमसान करना, बस्ती की बस्ती, कब्रस्तान करना.
ला-गिनती बच्चे, ला-वालिदान करना, खू मे नहा, जस्ने-आम करना.

नस्ल की राह पे, चलना सबाब, नस्ल की राह पे, मारना सबाब है.
नस्ल की राह पे, मरना सबाब, ए कैसा सैतानी, फ़र्मान कर रहा है.

नही जिन्दा रहना, गिरफ़्त मे आके, तू राहे नस्ल, जाने-कुर्बान करना.
ए मौला ए कैसा, इल्म कर रहा है, कही कोइ बच्चा, बडा कर रहा है.

बच्चो को सभी माफ़, बच्चो का क्या, काज़ी पे कोइ, सज़ा ही नही.
जहाने अदालत मे, वो काज़ी नही, बच्चो कि गलती, पे फासी नही.

बच्चे पे कैसा, जुल्म कर रहा है, चच्चू ए कैसा, इल्म कर रहा है.
ए मौला बता, ए क्या हो रहा है, ए कैसा बुरा, फ़ल्सफ़ा दे रहा है.

बचालो बच्चो को, दुनिआ वालो, क्या आया जमाना, ए क्या हो रहा है,
फिर कोइ बच्चा, जिबह हो रहा, एक नए कसाब का, ईजाद हो रहा है,

फिर वो मन्जर, मुक्कमल हो रहा है, कुल्लहड बढ्कर, घडा हो रहा है,
कल का भिखारी, बाद्साह हो रहा है, चुरा-चुराके, शाहन्साह हो रहा है.

सबक लो हज़रत, मदत देने से पहले, ए बन्दा कही गुमराह, हो गया है.
न बाटो औजारे-इल्म, सैतान को, कि बन्दर के हाथ, उस्तरा हो गया है.

देखो ए क्या, माजरा हो रहा है, कोइ राह चलता, खुदा हो रहा है.
ए मौला बता, ए क्या हो रहा है, ए कैसा बुरा, फ़ल्सफ़ा हो रहा है.

गुरुवार, 13 मई 2010

तिकडिआ : "एक नही तीन"... साझा सरकार

एक रहे बे, दूजे रहे बे, तो तीजे भी रहे बे ....

एक रहे एबे, दूजे रहे दूबे, तो तीजे रहे तीबे ...

बोलो कितने रहे बे... तीन, .. .. .. अरे नही... बुद्धु... एक.


एबे लिखै १ कहानी, दूबे लिखै १ कहानी, तो तीजे लिखै १ कहानी....

एबे लिखिन ३ कहानी, दूबे लिखिन ३ कहानी, तो तीजे लिखिन ३ कहानी....

बोलो कितनी कहानिया..... नौ, .. .... अरे नही... बुद्धु.... तीन.


एबे मारिन १ शेर, दूबे मारिन १ शेर, तो तीबे मारिन १ शेर....

एबे मारिन ३ शेर, दूबे मारिन ३ शेर, तो तीबे मारिन ३ शेर...

बोलो मारिन कितने शेर..... नौ, .. .... अरे नही... बुद्धु.... तीन.


एबे पाइन १ तमगा, दूबे पाइन १ तमगा, तो तीबे पाइन १ तमगा ....

एबे पाइन ३ तमगा, दूबे पाइन ३ तमगा, तो तीबे पाइन ३ तमगा ...

बोलो कितने तमगा..... नौ, .. .... अरे नही... बुद्धु.... तीन.


एबे किहिन १ मेहेरिआ, दूबे किहिन १ मेहेरिआ,  तीबे किहिन १ मेहेरिआ.....

एबे पाइन ३ मेहेरिआ, दूबे पाइन ३ मेहेरिआ, तीबे पाइन ३ मेहेरिआ...

बोलो कितनी मेहेरिआ..... नौ, .. .... अरे नही... बुद्धु.... एक.   ..

            .                      चुप बे, ..क्यु..  क्यु ...  क्यु.... क्युकि इसमे साझा नही.
                                                                         


लब्बोलुआब ए कि .......,

एक - एक, जोड करे जो साझा व्यापार,

जो भो साझादार का हो, वो भी तो हमार,

दुनिया बनाय बुद्दु, चलाई साझा सरकार.

ऒ दर्वेश तो..

ढून्ढ्ते थे जिसे, जमाने भर मे, ऒ दर्वेश तो, अपने ही शहर निकला.
कमतरी पहचान की थी, मेरा हमसफ़र ही, बस मेरा, रहनुमा निकला.

चन्द वादे, मुकर जाने के लिये, आप आये है, फिर से जाने के लिये.
शुकर है कि, खिलखिलाये तो, गम के दरिया मे, डूब जाने के लिये.

कौन कह्ता है, सराफ़त मर गई, तुम को देखा, जब से मुस्कराते हुए.
रात मे नीन्द, छलावा करती, युही बस तेरे, और करीब जाने के लिए.

जुनु मे सही, जाने को कह दिया, चान्द उतार, लाने को कह दिया.
न जाना कि, ए तो पागल है, सीढियो पे सीढी, लगाता रह जायेगा.

झूठे वादे पे, एतबार किया, बेव्कूफ़ है, आसमान से भिड जायेगा.
बचाले पछ्तायेगी, तेरा दीवाना है, चान्द क्या, खुद को मरा पायेगा.

मंगलवार, 4 मई 2010

प्यासा पथिक

सर सलिल के पास आकर, जब पथिक प्यासा गया।
भावना समझे बिना ही, सरोवर अकुला गया।

स्वयं को देखा उपेक्षित, सोच बैठा कुछ सरोवर।
वेदना को क्या समझता, बीतती क्या पथिक मन पर।

कमल दल सुकुमार कोमल, कर तालो से हिल न जाये।
साधना के भ्रमर डर कर, दूर नभ में खो न जाये।

धूल धूसर कर से सरोवर को, कही पंकित न कर दू।
लहरे उठा शांत सर को, ब्यर्थ ही व्यचलित न कर दू।

इसलिए सर के किनारे से, पथिक प्यासा गया।
और ब्यर्थ की दुर्भावना ने, सरोवर अकुला गया।

*** श्याम बिस्वानी ****

नमस्कार - स्वीकार करे

मित्रो,
सस्नेह नमस्कार।
लो ब्लॉग सुरु ह़ोते ही, अभिव्यक्ति को पंख मिल गए।
न कुछ kahne की pida me, अनुभूति को रंग मिल गए।

न दुखेगा मन अब, न कुछ कह पाने के लिए।
न रहेगी व्यस्तता की चादर, फिर odhane के लिए।

न कहेगे यार मिलते ही, क्यों आजकल कहा रहते ह़ो।
बिलकुल ही लापता ह़ो, kya ho, कहा, क्या करते ह़ो।

तो मिलते है, इस ब्लोगिया अड्डे पर कभी कभी।
स्वागत में है ये, ताजातरीन गीत अभी अभी।



******************** श्याम बिस्वानी *******

तू और मैं

लो फिर से मौसम मस्त हुआ, लो फिर से चली है पुरवाई।
लो फिर से नगमे मचल पड़े, लो फिर से तेरी याद आई।


लो फिर से बौराया तन - मन, सूखे अधरों पे प्यास जगी।
लो फिर से सपने मचल उठे, सोती रातो की नीद भगी।


फिर तूने कही दर्पण देखा, तू फिर से कही है मुस्काई।
फिर तूने किया है जिक्र मेरा, तू फिर से कही है सर्माई।


लो फिर से आँखे सजल हुई, लो फिर मिलने की चाह जगी।
हम भूल गए - हम कहा रहे, जीवन सरिता है कितनी बही।


अंधे को क्यों दर्पण दे डाला, बहरे को सुनाई सहनाई।
क्यों पतझड़ में पानी डाला, क्यों फिर से बुलाई तरुनाई.



*********** मिलते है अगली बार, आपके सुन कर विचार ****