रविवार, 10 अगस्त 2014

नये युग मे पुरानी बाते करते कहा आ पहुचा, कि यह सुधि ही न रही कि कविता और साहित्य सन्गिनी रही. अब होश आ ही गया है तो फिर से खो जाने को जी करता है

प्रपन्ची पन्च और पूजा

इन दमकती बस्तिओ मे, ये चमकती हस्तिय़ा,

सख्सियत है बा-मुल्लमा, जो उतरनी चाहिये.


जो चमकते दिख रहे है, बस कान्च के फ़ानूस है,

इनकी रोशनी को मशालची, की नज़रे इनायत चाहिये.


ज्यो काइयो की झाइयो से, रतन अनगिनत फ़ूस है.

औ खरा-खोटा जानने को, बस आग जलनी चाहिये.


खुद के हक मे फैसले, प्रपन्च ही तो है पन्च का,

जब निस्पछ्ता ही न्याय मे, सिद्धान्त होना चाहिये.


खुद को रेवडी बाट्ते जो, बेसरम - अन्धे है वो,

मै हू, ए मेरा है और, बस इसे ही मिलना चाहिये.


मै खुजाउ पीठ तेरी, और तू पिला दे दूध इसको,

जम गयी यह कीच, हिमनद सी खिसकनी चाहिये.


मल किया पानी मे तूने, और आद्तन वह उतरा रहा,

इस नरक को बहाने को, बस एक जल-प्रपात चाहिये.



यु..युकि :-



ईश सम पुजते जहा हो, पन्च-परमेस्वर सभी,

ऎसे पन्चो की वहा, अब चान्द पुजनी चाहिये.