शुक्रवार, 27 मई 2011

"जो रोशनी रही भी थी, वो सलामत नही रही"

यु हि हमने तमाम उम्र, अकेले सफ़र किया,
किसी हमसफ़र की, कोइ एइनायत नही रही.

यु कि मेरे जहा मे कोइ, नशेमन नही रहा,
अच्छा हुआ कि, इश्क की आदत नही रही.

हमने जो सच कहा, तो बुरा मान गये लोग,
यु झूठे ही चाप-लूसी, की आदत नही रही.

अदब मे सर झुकाया, तो खुदा बन गये लोग,
तह्जीब ओ नफ़ासत, ओ सराफ़त नही रही.

न घर, न मुकाम, न बस्ती, न सुबा, न वतन,
ओ घरोन्दो मे बसरे, की ओ चाहत नही रही.

जो मुस्कराये तो मिल के, लिया खैरो-खबर,
युहि रूठो को मनाने, की जिआरत नही रही.

कभी कुछ कहा तो, बस सलामती के लिये,
बस युही कोशने की, मेरी जलालत नही रही.

मिलते ही दीदरे तर, युही बेबाक क्या हुए,
गर्मिये-इश्क वही, पर ओ हरारत नही रही.

गुम्च ए चमन सी वही, सबनमी तर खुस्बू
बेदम दमे मरीज की, ओ सान्सत नही रही.

यु कर कि सर पे कोइ, छ्त भी तो नही रही,
खन्डहर खडे रह गये है, पर इमारत नही रही.

बदलते हालात मे सभी, यार कुछ यु बेजार हुए,
जो यारी बची नही रही, तो अदावत नही रही.

कैसे समा बचाये सनम, तेरी तस्नगी की हम,
जो रोशनी रही भी थी, वो सलामत नही रही.