गुरुवार, 14 मई 2015

चान्दनी तरसती रही काज़ल को



रात भर चान्दनी तरसती रही  काज़ल   को,
दूज  की  रात  हुई  तो चान्दनी  फ़रार   रहे.

नसीहतो से डर के न तुमने  प्यार  किया,
चाहतॊ  मे  तेरी  .. बस  हम  ही  बेजार रहे.

दिलो की  अदावते  भी   क्या   खूब    रही,
न तुमने कैद किया न ही  हम  फ़रार  रहे.

फ़ासले हमने बस एक तरफ़ा  कम  किये,
नजदिकिया बस आप को ही  नागवार रहे.

मज़िलो पे  हम  सफ़र  भी   कम  हो  लिये,
आखिरी वक्त है अब न कोइ  दरो  दीवार रहे.

रविवार, 10 अगस्त 2014

नये युग मे पुरानी बाते करते कहा आ पहुचा, कि यह सुधि ही न रही कि कविता और साहित्य सन्गिनी रही. अब होश आ ही गया है तो फिर से खो जाने को जी करता है

प्रपन्ची पन्च और पूजा

इन दमकती बस्तिओ मे, ये चमकती हस्तिय़ा,

सख्सियत है बा-मुल्लमा, जो उतरनी चाहिये.


जो चमकते दिख रहे है, बस कान्च के फ़ानूस है,

इनकी रोशनी को मशालची, की नज़रे इनायत चाहिये.


ज्यो काइयो की झाइयो से, रतन अनगिनत फ़ूस है.

औ खरा-खोटा जानने को, बस आग जलनी चाहिये.


खुद के हक मे फैसले, प्रपन्च ही तो है पन्च का,

जब निस्पछ्ता ही न्याय मे, सिद्धान्त होना चाहिये.


खुद को रेवडी बाट्ते जो, बेसरम - अन्धे है वो,

मै हू, ए मेरा है और, बस इसे ही मिलना चाहिये.


मै खुजाउ पीठ तेरी, और तू पिला दे दूध इसको,

जम गयी यह कीच, हिमनद सी खिसकनी चाहिये.


मल किया पानी मे तूने, और आद्तन वह उतरा रहा,

इस नरक को बहाने को, बस एक जल-प्रपात चाहिये.



यु..युकि :-



ईश सम पुजते जहा हो, पन्च-परमेस्वर सभी,

ऎसे पन्चो की वहा, अब चान्द पुजनी चाहिये.

मंगलवार, 24 जुलाई 2012

झूठ के पन्खो से आस्मा की बुलन्दिया

झूठ के पन्खो से, आस्मा की बुलन्दिया,
जनाब बस रोज, पन्ख ही बदलते रहे.
बे-पनाह ताकते, चन्गुल मे समेट कर,
ना जमीर जानिब, मोम से पिघलते रहे.

फ़न रहा सेन्ध-मारी, छल फ़रेब - चोरिया,
बक्शा नही किसीको, खुदी को छलते रहे.
मार दी इन्सानियत, सच को दफ़ना दिया,
सब्ज दरख्त की छाव, ए-सी लगा सोते रहे.

हर पहर चेहेरे नये, हर पहर की गल्तिया,
दूसरो को मार कर, खुद मौत से डरते रहे.
फ़ासले कम हो रहे है, आ रही है फ़ासिया,
रुर्ख रु खुद ही रहे, लोग आक-थू करते रहे.

बुधवार, 23 मई 2012

"आस्टेरिटी मीजर की.. इन ने भुज्ज मार दी"

सरकार सॊ रही है.. यु चादर चढाइ के....
चोर्टे सभी लगे है.. यु सेन्धे लगाइ के...

सरकार रही सुतली .. तो खुब माल लुटली...
चूस गये आम सभी.. ओ निगल गये गुठली....

जनता रही है सिसकती.. सरकार रही घिसटती...
पब्लिक रही है पिसती.. सरकार रही है हसती...

हर नाकामियो के जस्न.. पे मुरगे चबाइ के ...
खुद मिया मित्ठू बने..  है दारु चढाइ के...

कानून खुद बनाइ के.. खुद ही सेन्ध मार दी...
आस्टेरिटी मीजर की.. इन ने भुज्ज मार दी...

शुक्रवार, 4 मई 2012

प्रपन्ची पन्च और पूजा

इन दमकती बस्तिओ मे, ये चमकती हस्तिय़ा,
सख्सियत है बा-मुल्लमा, जो उतरनी चाहिये.

जो चमकते दिख रहे है, बस कान्च के फ़ानूस है,
इस रोशनी को मशालची, की नज़रे इनायत चाहिये.

ज्यो काइयो की झाइयो से, रतन अनगिनत फ़ूस है.
और खरा-खोटा जानने को, बस आग जलनी चाहिये.

खुद के हक मे फैसले, प्रपन्च ही तो है पन्च का,
जब निस्पछ्ता ही न्याय मे, सिद्धान्त होना चाहिये.

खुद को रेवडी बाट्ते जो, बेसरम - अन्धे है वो,
मै हू, ए मेरा है और, बस इसे ही मिलना चाहिये.

मै खुजाउ पीठ तेरी, और तू पिला दे दूध इसको,
जम गयी यह कीच, हिमनद सी खिसकनी चाहिये.

मल किया पानी मे तूने, और आद्तन वह उतरा रहा,
इस नरक को बहाने को, अब एक जल-प्रपात चाहिये.

यु..युकि :-

ईश सम पुजते जहा हो, पन्च-परमेस्वर सभी,
ऎसे पन्चो की वहा, अब चान्द पुजनी चाहिये.

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

जय गुरुदेव - "गुरु देवो भव"

आस्मा क्यो नीला लगे, और अग्नि क्यो पीली लगे.

जानते ही राज इनके जब, तिलिस्म सब यु ही भगे.


"तमसो मा ज्योतिर गमय" का ग्यान आवाहन लगे.
गुरु - मान का बट व्रक्छ, तब स्वत ही उर मे उगे.


शिस्य को गुरुर के काबिल, बनाये जो वही गुरु हो.
आस्था की अविरल धार, शिस्य मे तब युही सुरु हो.


कि .... गुरु गोविन्द दोऊ खडे, काके लागो पाय.
         बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो दिखाय.